बलिया। सावन का अत्यंत पावन माह। सर्वत्र हरियाली। मेघों से आच्छादित आकाश। वर्षा के बूंदों की छम छम ध्वनि। वन में नृत्य करते मोर। गुलजार शिवालय। झूलों में झूलते युगल और भादों माह में नवविवाहिता या दुल्हन के मायके से कहारों द्वारा ससुराल में पहुंचाया जाता तीज - मिष्ठान। जगह-जगह महिला चैपालों में शिव गीत। कजरी गायन। हरी साड़ी व हरी चूड़ियां पहनने का महत्व आदि परंपराएं धीरे-धीरे कम होती जा रही हैं।
जनपद के शिक्षक व साहित्यकार डॉ. नवचंद्र तिवारी आगे लिखते हैं कि पहले सावन के झूलों का गुणगान व व्यापकता देखते - सुनते ही मन झूम उठता था। मान्यता है शिव ने ही पार्वती के पहले झूला डालने की परंपरा रखी थी। तब से हमारे देश में यह निर्बाध चला आ रहा था। झूले पर सखियों की हंसी - ठिठौली हर किसी को तनाव मुक्त कर देता था। मायके बुलाई गई विवाहित बेटी की खुशियां देखते ही बनती थी। भाइयों को राखी बांधने के निमित्त बहनों द्वारा मायके पहुंचने के सिलसिले से संपूर्ण टोला - मोहल्ला हर्ष व उत्साह से भर जाता था। इससे अपनापन बढ़ता था। रिश्तों में मिठास होती थी। मेल - जोल हेतु लोग समय निकालते थे।
अब न ही सावन के झूले दिख रहे हैं। न ही कजरी गीतों की धूम। तेजी से कटते बाग- बगीचे भी इसके कारण हैं। पाश्चात्य व आधुनिक शैली का अंतहीन मायाजाल का अतिक्रमण और जीवन की आपाधापी ने भारतीय लोक परंपरा को आघात पहुंचाने का कार्य किया है। बहाना लेकर मिलने - जुलने की कम होती संख्या से अपनापन की भावनाओं में कमी देखी जा रही है। इसके स्थान पर ईर्ष्या, वैमनस्यता तथा तनावपूर्ण शैली में नित वृद्धि होती जा रही है। पारिवारिक रिश्तों की डोर व सामाजिक प्रेम - सोहार्द को तो ये पर्व - त्यौहार व लोक परंपराएं ही जीवित रखती हैं।
आज विश्व में भारत ने अपनी धाक बढ़ाई है तो हम सबको भी अपनी लोक परंपराओं को मानना होगा। इसे गति देनी होगी। विकास के साथ-साथ विरासत को भी गले लगाना होगा। इससे देश में सद्भावना, समरसता व शांति बढ़ेगी। समग्र समाज मनभावन सावन की भांति खिल उठेगा।