बाराबंकी। पांच वर्षों से बंबू (बांस) मिशन से जुड़कर डा. अंशुल चंद्रा महिलाओं को न सिर्फ आत्मनिर्भर बना रही हैं, बल्कि पर्यावरण को भी संरक्षित कर रही हैं। वह बंबू की खेती कर उनसे मोबाइल स्टैंड, स्पीकर स्टैंड, सोफा, कुर्सी, मेज, डाइनिंग सेट सहित तमाम उत्पाद तैयार करा रही हैं। ढाई हजार से अधिक महिलाओं को रोजगार से जोड़ा है। उत्पाद की सप्लाई अयोध्या, लखनऊ, रायबरेली, हरदोई में हो रही है।
लखनऊ के राजाजीपुरम निवासी डा. अंशुल चंद्रा पांच वर्षों से बाराबंकी के सतरिख में बंबू यूनिट स्थापित कर रोजगार के साथ पर्यावरण संरक्षण का संदेश दे रही हैं। वह बाराबंकी, लखीमपुर, बहराइच, मिर्जापुर और बरेली जाकर महिलाओं को बंबू से बनने वाले उत्पादों का प्रशिक्षण दे रही हैं। अब तक ढाई से हजार महिलाओं को वन विभाग के सहयोग से प्रशिक्षित कर बंबू की खेती करने और उससे बनने वाले उत्पाद की जानकारी देकर रोजगार से जोड़ चुकी हैं। डा. अंशुल चंद्रा ने बताया कि देहरादून से पीएचडी करने के बाद वह बंबू मिशन को आगे बढ़ा रही हैं। इसके लिए उन्हें वन विभाग की ओर से अनुदान भी मिलता है। वर्तमान में वह सतरिख में बंबू यूनिट और प्रशिक्षण केंद्र संचालित कर रही हैं। यहां प्रतिदिन दर्जनभर महिलाओं को बंबू हैंडीक्राफ्ट (हस्तशिल्प) की ट्रेनिंग दे रही हैं।
30 से 40 प्रतिशत अधिक आक्सीजन देता बांस रू अंशुल चंद्रा ने बताया कि बंबू की खेती प्रति तीन वर्षों में तैयार हो जाती है और उससे बने उत्पाद पर्यावरण को संरक्षित करते हैं। लोगों को भी प्रयोग में नुकसान नहीं पहुंचाते हैं। बंबू में अन्य पेड़ों की अपेक्षा 30 से 40 प्रतिशत प्रतिशत अधिक आक्सीजन निकलती है और वातावरण से कार्बन डाई आक्साइड को सोखता है, जिससे हवा की गुणवत्ता में सुधार होता है। इसलिए इसकी खेती पर्यावरण के लिए लाभदायक है।
उन्होंने बताया कि वर्ष 2019 में सतरिख से छोटी यूनिट से शुरुआत की थी। मोबाइल स्टैंड, स्पीकर स्टैंड, सोफा, कुर्सी, मेज, डाइनिंग सेट, वाल स्ट्रेक्चर, हैंडीक्राफ्ट आदि बनाए जा रहे हैं। बांस के उत्पाद से रोजगार के तमाम संभावनाएं हैं, पर्यावरण को शुद्ध बनाते हैं।
बांस की खेती को मिल रहा बढ़ावा रू डिप्टी रेंजर विनीत जायसवाल ने बताया कि वन विभाग से बांस की खेती करने पर अनुदान दिया जाता है। प्रति हेक्टेयर 375 से लेकर 450 तक बंबू के पौधे लगाने पर सब्सिडी तीन वर्षों तक मिलती है। पहले वर्ष 50 हजार, दूसरे वर्ष 25 और तीसरे वर्ष 15 हजार रुपये किसान को दिए जाते हैं। जिले में असम व त्रिपुरा के बांस की नौ प्रकार के प्रजाति की खेती हो रही है।
