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गौरीगंज: डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी का व्यक्तित्व एवं कृतित्व प्रेरणादायी है-सुधांशु शुक्ला


गौरीगंज/अमेठी। डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर आधारित जनपद में सभी मंडलों में गोष्ठी का आयोजन किया गया गोष्ठी का आयोजन डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी जी के जयंती के अवसर पर संपन्न हुआ। गौरीगंज मण्डल ग्रामीण में मुख्य अतिथि के रूप में भाजपा जिला अध्यक्ष सुधांशु शुक्ला, मुसाफिरखाना मंडल में मुख्य अतिथि के रूप में पूर्व जिला अध्यक्ष दयाशंकर यादव, संग्रामपुर मंडल में पूर्व जिला अध्यक्ष राम प्रसाद मिश्रा,जामों मंडल में भाजपा प्रवक्ता चन्द्रमौलि सिंह सभी प्रमुख मुख्य अतिथि ने मंडलों में गोष्ठियों को संबोधित किया। वक्ताओं ने गोष्टी को संबोधित करते हुए कहा कि डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी शिक्षाविद्, चिन्तक और भारतीय जनसंघ के संस्थापक थे। 6 जुलाई 1901 को कलकत्ता के अत्यन्त प्रतिष्ठित परिवार में डॉ॰ श्यामाप्रसाद मुखर्जी जी का जन्म हुआ। उनके पिता सर आशुतोष मुखर्जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे एवं शिक्षाविद् के रूप में विख्यात थे। डॉ॰ मुखर्जी ने 1917 में मैट्रिक किया तथा 1921 में बी०ए० की उपाधि प्राप्त की। 1923 में लॉ की उपाधि अर्जित करने के पश्चात् वे विदेश चले गये और 1926 में इंग्लैण्ड से बैरिस्टर बनकर स्वदेश लौटे। अपने पिता का अनुसरण करते हुए उन्होंने भी अल्पायु में ही विद्याध्ययन के क्षेत्र में उल्लेखनीय सफलताएँ अर्जित कर ली थीं। 33 वर्ष की अल्पायु में वे कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति बने। इस पद पर नियुक्ति पाने वाले वे सबसे कम आयु के कुलपति थे। एक विचारक तथा प्रखर शिक्षाविद् के रूप में उनकी उपलब्धि तथा ख्याति निरन्तर आगे बढ़ती गयी। डॉ मुखर्जी जम्मू कश्मीर को भारत का पूर्ण और अभिन्न अंग बनाना चाहते थे। उस समय जम्मू कश्मीर का अलग झण्डा और अलग संविधान था। वहाँ का मुख्यमन्त्री (वजीरे-आजम) अर्थात् प्रधानमन्त्री कहलाता था। संसद में अपने भाषण में डॉ॰ मुखर्जी ने धारा-370 को समाप्त करने की भी जोरदार वकालत की। अगस्त 1952 में जम्मू की विशाल रैली में उन्होंने अपना संकल्प व्यक्त किया था कि या तो मैं आपको भारतीय संविधान प्राप्त कराऊँगा या फिर इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये अपना जीवन बलिदान कर दूँगा। उन्होंने तात्कालिन नेहरू सरकार को चुनौती दी तथा अपने दृढ़ निश्चय पर अटल रहे। अपने संकल्प को पूरा करने के लिये वे 1953 में बिना परमिट लिये जम्मू कश्मीर की यात्रा पर निकल पड़े। वहाँ पहुँचते ही उन्हें गिरफ्तार कर नजरबन्द कर लिया गया।23 जून 1953 को रहस्यमय परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गयी। गोष्टी के अवसर पर सभी मंडलों में प्रमुख कार्यकर्ता एवं भारी संख्या में आम जनमानस उपस्थितरहे।

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