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प्रयागराजः क्रूर पूंजीवाद के हाथ हुआ आवाज का नीलाम आस्था समित की नाट्य प्रस्तुति में हुआ मंचन


प्रयागराज। हालात इंसान को कभी कभी इतना लाचार बना देते है कि उसे अपनी निष्पक्ष और निर्भीक आवाज को नीलाम करने पर विवश होना पड़ जाता है।सांस्कृतिक संस्था ष्आस्था समिति द्वारा शनिवार को जगत तारन गोल्डन जुबली स्कूल के रवींद्रालय प्रेक्षागृह में मंचित धर्मवीर भारती के लिखे नाटकष्आवाज का नीलामष् में ऐसा ही मार्मिक दृश्य देखने को मिला। युवा रंगकर्मी निखिलेश कुमार मौर्या के निर्देशन में मंचित इस नाटक में 1947 में स्वतंत्रता मिलने के बाद की घटना को दिखाया गया है।

संस्कृति मंत्रालय भारत सरकार के सहयोग से मंचित नाटक ष्आवाज का नीलामष् एक ऐसा तीखा व्यंग्य है जो आजाद भारत की उन परतों को खोलता है जहां स्वतंत्रता के बाद भी नैतिकता की बेड़ियां टूटी नहीं बल्कि सत्ता और पूंजी के नए गठजोड़ ने उन्हें और मजबूत बना दिया। मंच पर केवल दो पात्र होते हैं।नाटक का आरंभ ष्आवाजष् अखबार के संपादक दिवाकर से होता है। नाटक के पात्र,घटनाएं,परिस्थितियां सब अखबार से संबंधित होती हैं,और अंत भी।ष्आवाजष् सत्य,त्याग,तपस्या,साधना और जनसाधारण का प्रतीक है।दिवाकर एक निडर स्वतंत्र पत्रकार है जो जनता की सही आवाज अपने अखबार में लाने का प्रयास करता है किंतु पत्नी की लंबी बीमारी और आर्थिक तंगी के कारण वह अपनी ष्आवाजष् को बेच देता है पर दूसरे ही पल पत्नी की मौत की खबर सुन कर अपनी बेची हुई ष्आवाजष् को सेठ से वापस लेना चाहता है। किंतु सेठ वापस करने को तैयार नहीं होता, दिवाकर सेठ से कहता है कि मेरी पत्नी मर चुकी है अब मुझे अपनी ष्आवाजष् बेचने की जरूरत नहीं। सेठ दिवाकर की बदहवासी पर हंसता है और बोलता है तुम तो अपनी ष्आवाजष् बेच चुके हो ,बिकी आवाज वापस नहीं होती। दरअसल नाटक का शीर्षकष्आवाज का नीलामष् दोहरा अर्थ रखता है। एक तो आवाज अखबार है जिसको विवशता में वह बेच देता है।दूसरा हर व्यक्ति की आवाज खरीदी जा सकती है,भले ही विशेष दुविधामय परिस्थिति में हो पर जब व्यक्ति खुद को अकेला महसूस करता है तो उसको अपनी अपनी आवाज की हकीकत का पता चलता है। यही स्थिति दिवाकर की होती है।वह जिस सेठ को उसके गलत कार्यों के कारण धिक्कारता , फटकारता है अपनी जरूरत पर देवता की तरह मानने लगता है। यहां पर मूल्यों एवं मानदंडों की टकराहट को दिखाया गया है।

नाटक में सेठ बाजोरिया के माध्यम से ऐसे लोगों की वास्तविक स्थिति को दिखाने का प्रयास किया गया जो अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिये किसी भी स्तर तक जा सकता है। दूसरी ओर सच्चे,ईमानदार पत्रकारों को सच की आवाज के लिए बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है। पत्रकार तो जनता की आवाज होता है अगर वही अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बेचने के लिए मजबूर हो जाए तो इससे बड़ी विडंबना क्या हो सकती है।वर्तमान समय में पत्रकारिता एवं मीडिया जगत की यही वास्तविकता है।ननाटक में जिज्ञासा और रोचकता अंत तक बनी रहती है।

नाटक के दोनों पात्रों दिवाकर (पत्रकार)की भूमिका में राहुल चावला एवं बाजोरिया (पूंजीपति)की भूमिका में आकाश अग्रवालष् चर्चितष् ने अपने सशक्त अभिनय से दर्शकों को अंत तक बांधे रखा। सेट निर्माण एवं प्रकाश व्यवस्था ने नाटक को प्रभावपूर्ण बनाने में महायोग किया। ध्वनि व्यवस्था प्रशांत वर्मा, प्रकाश संचालनध्सेट निर्माण निखिलेश कुमार मौर्य,रूप सज्जा हामिद अंसारी,पार्श्व स्वर राहुल चावला, नाटक के कलाकार श्रिया सिंह, मंच सामग्री अमन सिंह,पृथ्वी शर्मा,पोस्टरध्कार्ड डिजाइन शहबाज अहमद, मंच व्यवस्था आरिश जमील,रमेश चन्द, प्रस्तुति नियंत्रक पंकज गौड़ थे एवं संपूर्ण व्यवस्था अनूप गुप्ता की थी ।अतिथियों का स्वागत एवं संस्था का ब्यौरा महासचिव मनोज गुप्ता ने प्रस्तुत किया जबकि धन्यवाद ज्ञापित संस्था के अध्यक्ष बृजराज तिवारी ने किया।

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