हरिद्वार। दलित शब्द आते ही अधिकांश अधिकारियों की कार्य करने की भावना बदल जाती है। पिछले 30 सालों से अपने मालिकाना हक की लड़ाई लड़ रहे गरीब दलितों को उत्तराखंड में न्याय नहीं मिल पा रहा है। धरना प्रदर्शन के साथ साथ दलितों ने सरकार से लेकर आयोग तक गुहार लगाई है। लेकिन अधिकारियों की शिथिलता के कारण बेचारे दलित वर्ग के ये लोग दर दर भटकने को मजबूर हैं। हरिद्वार सहित पूरे उत्तराखण्ड में इस तरह के मामलों में अधिकारी वर्ग सकारात्मक कार्यवाही करने से बच रहे हैं।
आपको बता दें 1995 में तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती जी द्वारा भूमि व्यवस्था संशोधन लाया गया था जिसे राज्यपाल द्वारा मंजूरी दे गई थी। इसके तहत ग्राम समाज की ऐसी भूमि जो धारा 132 के अंतर्गत सार्वजनिक उपयोग की न हो वह उस पर काबिज व्यक्ति की हो जाएगी । भूमि व्यवस्था अधिनियम की धारा 123 में भी संशोधन करके यह व्यवस्था की गई है कि धारा 122 सी 131 में उल्लेखित श्रेणी के व्यक्ति द्वारा 3 जून 1995 से पूर्व की काबिज भूमियों पर भूमिधर का हक दे दिया जाएगा। 14 सितंबर 1995 को प्रमुख सचिव राजस्व विभाग उत्तर प्रदेश के सभी प्रमुख सचिवों, जिला अधिकारियों को आदेशित किया गया था कि संशोधित व्यवस्था के अनुसार धारा 132 को छोड़कर ऐसी सभी ग्राम समाज की भूमि कब्जाधारकों को धारा 195 के अधीन दे दी गई हैं।
इस मामले में उत्तराखंड के अनुसूचित आयोग के अध्यक्ष मुकेश कुमार से फोन पर बात चीत के दौरान उन्होंने बताया कि कुछ ऐसे मामले आयोग के संज्ञान में भी आए हैंध्लाए गए हैं। जिनमें आयोग ने संबंधित अधिकारियों को निर्देशित किया है। उन्होंने कहा कि आयोग दलित हितों के लिए गंभीर है और ऐसे मामलों में अधिकारियों से भी उचित एवं त्वरित कार्यवाही की अपेक्षा करता है। उन्होंने यहां तक कहा कि मुख्यमंत्री भी दलित हितों के मुद्दे पर गंभीर हैं। शुक्रवार को ऐसा ही एक मामला कांग्रेसी नेता अंजलि भावना ने उठाया है जिसने पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत ने बड़े आंदोलन की चेतावनी दी है। सवाल ये है कि अगर आयोग गंभीर है और सरकार भी दलितों का हित चाहती है तो फिर ऐसे कौन से अधिकारी हैं जो सरकार की छवि को दलित विरोधी दिखाना चाहते हैं।
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