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अमेठीः प्राइवेट स्कूल बन चुके हैं लूट लिमिटेड कंपनी


योगी जी! एक बार बुलडोजर शिक्षा माफियाओं पर भी चलाओ तो कुछ बात बने
अमेठी। प्राइवेट स्कूल यानी बिना घाटे का व्यापार। इनवेस्टमेंट भी एक ही बार, फिर मुनाफा बार बार। इस पर किसी का अंकुश भी नहीं। शिक्षा के लिए खोले जा रहे प्राइवेट स्कूल इन दिनों सबसे बड़ा कमाई का जरिया बनकर उभरे हैं। अधिकतर स्कूलों में मनमाफिक फीस के नाम पर अभिभावकों को लूटा जा रहा है, लेकिन अभिभावकों की भी मजबूरी है कि वे आवाज तक नहीं उठा सकते। स्कूलों के खिलाफ बोलें, तो बच्चे के भविष्य पर तलवार लटक जाती है। हालांकि प्राइवेट स्कूलों की मनमानी के खिलाफ शहर में इन दिनों आवाज बुलंद होने लगी है, लेकिन जब तक सभी अभिभावक नहीं जागेंगे, सरकारी तंत्र की नींद भी नहीं खुलेगी और यह खुला लूट का खेल चलता रहेगा। यूं तो स्कूलों की मंशा बच्चों को बेहतर शिक्षा दिलाना होती है, लेकिन अब संचालकों का उद्देश्य कमाई हो गया है। इनका ध्यान हर साल फीस बढ़ाने और कमाई के अन्य तरह के विकल्प खोजने में लगा रहता है। ड्रेस से लेकर किताबों में भी कमाई का माध्यम ढूंढ़ते रहते हैं। इनकी मोटी कमाई पर अंकुश लगाने के लिए सरकारी तंत्र ने तो मानो तौबा कर ली है। आखिर ये भी किस अधिकार से बोलें, जनप्रतिनिधि से लेकर सरकारी अफसरों तक के बच्चे भी तो बड़े नाम वाले प्राइवेट स्कूलों में शिक्षा लेते हैं। ऐसे में प्राइवेट स्कूल संचालक बेलगाम होकर अभिभावकों की जेब काटने का काम कर रहे हैं। स्कूलों में मनमानी फीस को लेकर अभिभावक विरोध करने से डरते रहें है। फरवरी-मार्च आते ही प्रदेश के लगभग सभी बड़े शहरों में नर्सरी स्कूलों में एडमिशन को लेकर बवाल हो जाते हैं। कहीं फार्म की मनमानी कीमतों को लेकर असंतुष्टि रहती है तो कोई सरकार द्वारा तय मानदंडों का पालन न होने से रूष्ट। हालात इतने बद्तर हैं कि तीन साल के बच्चे को स्कूल में दाखिल करवाना आईआईटी की फीस से भी महंगा हो गया है। माहौल ऐसा हो गया है कि बच्चों के मन में स्कूल या शिक्षक के प्रति कोई श्रद्धा नहीं रह गई है। वहीं स्कूल वालों की बच्चों के प्रति न तो संवेदना रह गई है और न ही सहानुभूति। ऐसा अविश्वास का माहौल बन गया है, जो बच्चे का जिंदगी भर साथ नहीं छोड़ेगा। शिक्षा का व्यापारीकरण कितना खतरनाक होगा, इसका अभी किसी को अंदाजा नहीं है। लेकिन मौजूदा पीढ़ी जब संवेदनहीन होकर अपने ज्ञान को महज पैसा बनाने की मशीन बनाकर इस्तेमाल करना शुरू करेगी, तब समाज और सरकार को इस भूल का एहसास होगा। निजी स्कूल संचालक स्कूल से अधिक स्टेशनरी एवं ड्रेस की दुकान से कमीशन के रूप में कमाई करते हैं। स्टेशनरी दुकानदार निजी प्रकाशकों की किताब अभिभावकों को दस गुना अधिक दाम पर बेच कर स्कूल संचालकों को 50 फीसदी तक कमीशन देते हैं। इसका अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि निजी प्रकाशक की 25 पन्ने की अंगेजी ग्रामर की किताब जिसकी कीमत महज 100 रुपए होनी चाहिए। उसमें 550 रुपए प्रिंट रेट डालकर अभिभावकों से मनमानी दाम वसूले जा रहे हैं। वहीं निजी स्कूल की ड्रेस जिनकी ओपेन बाजार में कीमत अधिकतम एक हजार रुपए है वे ड्रेस फिक्स दुकानों में अभिभावकों को 2500 रुपए में बेचे जा रहे हैं।

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