भारत के दलितों पिछड़ों एवं समाज के दबे कुचले लोगों के अधिकारों का ध्यान रख संविधान लिखने वाले बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर का आज जन्मदिन है कुछ समय पहले केवल सच्चे अनुयायी ही मनाते रहे हैं जो आज भी मना रहे हैं लेकिन बहुत से जयंती मनाने वाले ऐसे भी लोग हैं जिनसे कभी उम्मीद नहीं की जा सकती थी वो आज भी केवल सत्ता पाने को वोट के जुगाड तक ही सीमित रहती है कभी किसी ने बाबा साहब द्वारा लिए गए उस बयान पर विचार किया
जिसमें उन्होंने कहा था कि मैं हिन्दू घर में जन्मा जो मेरे वश में नहीं था लेकिन हिंदू होकर मरूंगा नहीं यह मेरे वश में है और उनको याद करने वाले कूटनीतिक उनके द्वारा लिखे गए संविधान को बर्बाद करने पर तुले हैं और अधिकारों की रक्षा करने आए बसपा जैसे दल डर के मारे या निजी स्वार्थ में चुप्पी साधे हुए हैं बाबा साहब का ही नाम लेकर सुरक्षित सीटों से लोकसभा विधानसभा में पहुंचे विधायक सांसद अपने अपने दलों की गुलाम गिरी में मस्त होकर पाखंडवाद का तमाशा देख रहे हैं और मेरी कोई हैसियत न होने के कारण ऐसे जनप्रतिनिधियों की विनेश ठाकुर निंदा करता है।
खैर देर से ही सही लेकिन बाबा साहब को सभी ने याद किया क्योंकि बाबा साहब एक जाति विशेष के बल्कि दुनिया में सबसे मजबूत लोकतांत्रिक देश का संविधान लिखने वाले वो मसीहा है जिन्हें वर्तमान समय में देश की सत्तर प्रतिशत आबादी मान सम्मान धन धरती शिक्षा सम्मान दिलाने का ग्रंथ लिखने वाला भगवान मानने लगी है खैर राष्ट्रीय धरोहर होने के नाते बाबा साहब की जयंती मनाना अच्छी बात है लेकिन मेरी नज़र में उनको याद करना तभी उचित है जब उनके द्वारा लिखे गए संविधान में गरीबों दलितों अतिपिछड़ों के अधिकारों का हनन न किया जाए। आज कल तो उन लोगों को भी बाबा साहब की याद आ रही है जिन्होंने सत्ता में रहकर हमेशा आरक्षित वर्ग को धार्मिक शैक्षणिक आर्थिक और सामाजिक सम्मान देने से वंचित रखा वरना समर्थन देकर लम्बे समय तक केंद्र सरकार चलवाते समय अतिपिछड़ों को भी लोकसभा विधानसभा में जनसंख्या अनुपात का आरक्षण जातिगत जनगणना एक परिवार एक रोजगार देश के प्रधानमंत्री और राज्यों के मुख्यमंत्री पदो पर एक बार दलित पिछड़ा और सामान्य की स्थाई व्यवस्था बनवा ली गई होती लेकिन यह तब सम्भव था जब जयंती मानने वालों की निति और नियत सही होती। धूमधाम से जयंती मनाने वालों ने तो आरक्षण व्यवस्था को ही गरीबी उन्मूलन केंद्र बनाकर रख दिया है खैर आगे बढ़ते हैं।
मुझे आज यह लिखने की आवश्यकता नहीं है बाबा साहब डाक्टर अंबेडकर किस वर्ग से आते थे और उनकी क्या विचारधारा थी पूरा देश ही नहीं दुनिया भर के लोग भी जानते हैं कि समानता दिलाने के लिए वे जीवन भर संघर्ष करते रहे. और दबे कुचलें समुदाय के लिए ऐसी अलग राजनैतिक पहचान की वकालत करते रहे जिसमें गैरबराबरी दूर कर सत्ता में हिस्सेदारी दिलाई जा सके लेकिन उनके नाम पर सरकार भी बनी और उनकी पूजा करने की प्रतिस्पर्धा भी जग जाहिर है लेकिन सत्ता में आने के बाद गैरबराबरी जैसे कलंक को किसी भी सरकार में नहीं धोया जा सका आज भी ढेर सारी जातियां अपनी जाति का नाम बताने में शर्म महसूस करते हैं परंतु उनकी याद में कई कार्यक्रम किए जाने का बड़ा कंपटिशन शुरू हो गया हैं. जिसे बसपा सपा से लेकर कांग्रेस, बीजेपी सहित तमाम राजनीतिक दल एक से बढ़कर एक बड़े कार्यक्रम कर रहे हैं अब उनके नाम पर सत्ता हासिल करने का खेल है या प्रेम, यह तो भगवान भी नहीं बता सकता लेकिन मैं पूछना चाहता हूं देशभर में सत्ता चलाने या सत्ता से दूर हो चुकें सियासी दलों से कि बाबासाहेब डॉ. अंबेडकर ने सामाजिक छुआ-छूत और जातिवाद के खात्मे के लिए काफी ऐतिहासिक आंदोलन किए. उन्होंने अपना पूरा जीवन गरीबों, दलितों और समाज के पिछड़े वर्गों के उत्थान के लिए न्योछावर कर दिया। उस समय उन्होंने खुद भी छुआछूत, भेदभाव और जातिवाद का सामना किया है, इसके बावजूद क्या आप दावा कर सकते हैं कि आपने उनके बताए मार्ग पर कितना काम किया । ज़ीरो
मैं दावे के साथ कह सकता हूं आप उनके विचारों पर एक कदम आगे नहीं बढ़ सकें उल्टे आरक्षित और लम्बे समय से सामाजिक शैक्षणिक आर्थिक रूप से वंचित रहे लोगों के अधिकारों पर हमले जारी हैं जिसने भारतीय समाज को तो खोखला बना ही दिया है देश भी झूठ की बुनियाद पर टिका दिया है घोषणाओं और वास्तविकता में जमीन आसमान का फर्क है स्थाई रोजगार देने के बदले अस्सी करोड़ लोगों को फ्री राशन दिया जा रहा है डर के मारे कोई सच्चाई पर बोलने को तैयार नहीं है। जबकि शोषित जातियों से भेदभाव बरकरार है लोकसभा विधानसभा में पूंजीपति खिलाड़ी हीरों हीरोइन को भेजा जा रहा है जिनके वोट से सत्ता हासिल की उन्हें स्थाई रोजगार अधिकार सम्मान सत्ता में जनसंख्या अनुपात में हिस्सेदारी जातिगत जनगणना और आरक्षण पर कुठाराघात निजीकरण जगजाहिर है। हालांकि उनके जन्म दिवस पर उनकी जीवनी पर सभी प्रकाश डालते है और आज की सच्चाई पर दो शब्द नहीं लिखते मुझे भी बाबा साहब की जीवनी पर प्रकाश डालना जरूरी है लेकिन इस देश में गरीबों दलितों अतिपिछड़ों के मसीहा बाबा साहब का नाम और काम किसी प्रचार का मोहताज नहीं है सभी को पता है कि बाबा साहब डाक्टर अम्बेडकर का जन्म 14 अप्रैल 1891 को मध्यप्रदेश के छोटे से गांव महू में हुआ था. उनका परिवार मराठी था और मूल रूप से महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले के आंबडवे गांव से था. उनके पिता का नाम रामजी मालोजी सकपाल और माता का नाम भीमाबाई था. वे अपने माता-पिता की चौदहवीं संतान थे. बाबा साहब का जन्म महार जाति में हुआ था जिसे लोग अछूत और निचली जाति मानते थे. अपनी जाति के कारण उन्हें सामाजिक दुराव का सामना करना पड़ा. प्रतिभाशाली होने के बावजूद स्कूल में उनको अस्पृश्यता के कारण अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था. इसके बावजूद उन्होंने हार नहीं मानी.
बाबा साहेब ने 14 अक्टूबर 1956 को नागपुर में एक औपचारिक सार्वजनिक समारोह का आयोजन किया. इस समारोह में उन्होंने श्रीलंका के महान बौद्ध भिक्षु महत्थवीर चंद्रमणी से पारंपरिक तरीके से त्रिरत्न और पंचशील को अपनाते हुए बौद्ध धर्म को अपना लिया. बाबा साहेब अंबेडकर डायबिटीज के मरीज थे. 6 दिसंबर 1956 को दिल्ली में उनका निधन हो गया था.
हालांकि डॉ. अंबेडकर चौथे वर्ण को समानता दिलाने के जीवन भर संघर्ष करते रहे. उन्होंने दलित समुदाय के लिए एक ऐसी अलग राजनैतिक पहचान की वकालत की जिसमें कांग्रेस और ब्रिटिश दोनों का ही कोई दखल ना हो. 1932 में ब्रिटिश सरकार ने डा अंबेडकर की पृथक निर्वाचिका के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी, लेकिन इसके विरोध में महात्मा गांधी ने आमरण अनशन शुरू कर दिया. इसके बाद डाक्टर अंबेडकर ने अपनी मांग वापस ले ली. बदले में दलित समुदाय को सीटों में आरक्षण और मंदिरों में प्रवेश करने का अधिकार देने के साथ ही छुआ-छूत खत्म करने की बात मान ली गई थी इस लिए आज भले ही हम लोग उनका जन्म दिवस मना रहे है लेकिन क्या वास्तव में हमने उनके बताए रास्ते पर चलने का काम किया है यह सबसे बड़ा सवाल है क्या हम सामाजिक न्याय के साथ सुर में सुर मिलाकर चल रहे हैं यदि नहीं तो फिर यह ढोंग नहीं तो क्या हैं मैं सभी सियासी दलों को कहना चाहता हूं कि यदि समय रहते हमने छूआछूत जातपात भेदभाव खत्म कर शासन सत्ता में हिस्सेदारी नहीं दी तो एक दिन खुले शब्दों में पछताना पड़ेगा लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होगी सही कहें तो हाथी के दांत खाने और दिखाने के एक करने होंगे। यदि वाकई हम समानता और सामाजिक न्याय के पक्षधर हो गये है तो मात्र एक साल के लिए कुम्भ जैसे धार्मिक कार्यों का लाखों करोड़ के बजट सहित अन्य धार्मिक व दिखावटी कार्यों का बजट काटकर पचास प्रतिशत की कमीशन खोरी समाप्त कर देश की सभी जातियों में आर्थिक आधार पर बांटते हुए शासन सत्ता में जनसंख्या अनुपात की हिस्सेदारी दे डालों, मैं बड़े विश्वास के साथ कह सकता हूं बाबा साहब की आत्मा यदि होगी तो आप लोगों से खुश होकर कह रही होगी आप लोगों ने देर से ही सही मेरा सपना साकार कर दिया और आप लोग मुझे दिखावटी नहीं सच्ची श्रद्धांजलि दें रहें हैं। लेकिन ऐसा करने की तो छोड़िए आपके लिए सोचना भी सबसे बड़े पाप के समान है।
विनेश ठाकुर, सम्पादक
विधान केसरी, लखनऊ